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नात्यद् भूतं भुवन भुषण भूतनाथ ।
भूतैर् गुणैर् भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः ॥
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा ।
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥१०॥
NATYADBHUTAM BHUVAN-BHUSHAN! BHUTANATH!
BHUTAIR-GUNAIR-BHUVI BHAVANT-MABHISHTUVANTAH
TULYA BHAVANTI BHAVATO NANU TEN KIM WA
BHUTYASHRITAM YA IHA NATMA SAMAM KAROTI
अर्थ :
हे जगत् के भूषण! हे प्राणियों के नाथ! सत्यगुणों के द्वारा आपकी स्तुति करने वाले पुरुष पृथ्वी पर यदि आपके समान हो जाते हैं तो इसमें अधिक आश्चर्य नहीं है| क्योंकि उस स्वामी से क्या प्रयोजन, जो इस लोक में अपने अधीन पुरुष को सम्पत्ति के द्वारा अपने समान नहीं कर लेता |
दृष्टवा भवन्तमनिमेष विलोकनीयं ।
नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः ॥
पीत्वा पयः शशिकरद्युति दुग्ध सिन्धोः ।
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत् ॥११॥
DRISHTWA BHAVANT MANIMESH VILOKANIYAM
NANYATRA TOSH MUPAITI JANASYA CHAKSHUH
PITWA PAYAH SHASIKARADYUTI DUGDHASINDHAU
KSHARAM JALAM JALANIDHÉ RASITUM KA ICCHET
अर्थ :
हे अनिमेष दर्शनीय प्रभो! आपके दर्शन के पश्चात् मनुष्यों के नेत्र अन्यत्र सन्तोष को प्राप्त नहीं होते| चन्द्रकीर्ति के समान निर्मल क्षीरसमुद्र के जल को पीकर कौन पुरुष समुद्र के खारे पानी को पीना चाहेगा? अर्थात् कोई नहीं |
यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्तवं ।
निर्मापितस्त्रिभुवनैक ललाम भूत ॥
तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां ।
यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ॥१२॥
YAIH SHANTA-RAGA-RUCHIBHIH PARAMANUBHISTVAM
NIRMAPITASTRI-BHUVANAIK-ALAABHA-BHUTA
TAWANTA EVA KHALU TEPYANAVAH PRITHVYAM
YATTE SAMANA-MAPARAM NAHI RUPAMASTI
अर्थ :
हे त्रिभुवन के एकमात्र आभुषण जिनेन्द्रदेव! जिन रागरहित सुन्दर परमाणुओं के द्वारा आपकी रचना हुई वे परमाणु पृथ्वी पर निश्चय से उतने ही थे क्योंकि आपके समान दूसरा रूप नहीं है
वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र शशाङ्क्कान्तान् ।
कस्ते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्ध्या ॥
कल्पान्त काल् पवनोद्धत नक्रचक्रं ।
को वा तरीतु मलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ॥४॥
VAKTUM GUNAN GUNA SAMUDRA SHASHANKANTAN
KASTE KSAMAH SURAGURU PRATIMOPI BUDDHYA
KALPANTA KAL PAVANODHAT NAKRACHAKRAM
KO VA TARITU MALAMAMBUNIDHIM BHUJABHYAM
अर्थ :
हे गुणों के भंडार! आपके चन्द्रमा के समान सुन्दर गुणों को कहने लिये ब्रहस्पति के सद्रश भी कौन पुरुष समर्थ है? अर्थात् कोई नहीं| अथवा प्रलयकाल की वायु के द्वारा प्रचण्ड है मगरमच्छों का समूह जिसमें ऐसे समुद्र को भुजाओं के द्वारा तैरने के लिए कौन समर्थ है अर्थात् कोई नहीं|
सोऽहं तथापि तव भक्ति वशान्मुनीश ।
कर्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्तः ॥
प्रीत्यऽऽत्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्रं ।
नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम् ॥५॥
SOHAM TATHAPI TAV BHAKTI-VASHAN-MUNISHA
KARTUM STAVAM VIGATA-SHAKTI-RAPI PRAVRITTAH
PRITYATMA-VIRYA MAVICHARYA MRIGO MRIGENDRAM
NABHYÉTI KIM NIJASHISHOH PARIPALANARTHANM
अर्थ :
हे मुनीश! तथापि-शक्ति रहित होता हुआ भी, मैं- अल्पज्ञ, भक्तिवश, आपकी स्तुति करने को तैयार हुआ हूँ| हरिणि, अपनी शक्ति का विचार न कर, प्रीतिवश अपने शिशु की रक्षा के लिये, क्या सिंह के सामने नहीं जाती? अर्थात जाती हैं|
भावार्थ :
अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम् ।
त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् ॥
यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति ।
तच्चारुचूत कलिकानिकरैकहेतु ॥६॥
ALPASHRUTAM SHRUTAWATAM PARIHASADHAM
TVADBHAKTIREVA MUKHARIKURUTE BALANMAM
YATKOKILAH KILA MADHAU MADHURAM VIRAUTI
TACHCHAMRACHARU KALIKA NIKARAIKA HETUH
अर्थ :
विद्वानों की हँसी के पात्र, मुझ अल्पज्ञानी को आपकी भक्ति ही बोलने को विवश करती हैं| बसन्त ऋतु में कोयल जो मधुर शब्द करती है उसमें निश्चय से आम्र कलिका ही एक मात्र कारण हैं|